मेरे एक वरिष्ठ साथी सुरेश दीवान मध्यप्र्रदेश के होशंगाबाद जिले के आसपास के गाँवों में एक स्वयं सेवी संस्था ग्राम सेवा समिति के साथ काम करते हैं। वे पिछले तीस साल से इस क्षेत्र में काम कर रहे है। गांधी जी के आग्रह पर कई साल के अनौपचारिक काम के बाद वरिष्ठ सर्वोदयी स्व. बनवारीलाल चौधरी ने यह संस्था 1953 में स्थापित की थी। करीब नौ साल तक मैनें भी इस संस्था के साथ काम किया। इस संस्था ने नए लोगों को प्रोत्साहित करने का बहुत उदारता के साथ काम किया है। मेरे जैसे कई लोग है जो अब औपचारिक रूप से संस्था से अलग अलग जगह स्वयं सेवी क्षेत्र में काम कर रहे हैं। संस्था में नए युवक, युवती लगातार आते रहे है। कुछ काम के लिए तो कुछ गांव से जुड़कर कुछ नया सीखने समझने के लिए।
पिछले तीन चार साल से इस संस्था में सुरेश भाई से मिलने कई नौजवान और प्रौढ़ मिलने के लिए आ रहे हैं। उनकी एक मात्र जिज्ञासा होती है कि स्वयं सेवी संस्था कैसे बनाई जाए। इनकी शब्दावली भी काबिलेगौर है वे कहते हैं कि उन्हें 'एनजीओ डालना हैं!' इन एनजीओ डालने वालों की फेहरिस्त लम्बी हैं। उनमें से एक व्यक्ति तो ऐसे भी हैं जो तीन चार संस्थाएँ पंजीकृत भी करा चुके हैं। हर काम के लिए वे अलग संस्था बनाना चाहते हैं और बना भी रहे हैं। सुरेशभाई बहुत ही उदार व्यक्तित्व वाले हैं। असल में वे व्यवहार से षिक्षक हैं इसलिए बहुत सहज तरीके से संस्था के पंजीयन आदि की वैधानिक जानकारी दे देते हैं। वे यह भी बताते हैं कि प्रोजेक्ट कैसे बनाया जाए, कहाँ भेजा जाए लेकिन यदि वे एनजीओ डालने वालों से पूछे कि उन्हें काम क्या करना है तो लोगों का जवाब होता है कि उन्होंने काम के बारे में अभी नहीं सोचा है परन्तु यदि उन्हें कहीं से फण्ड मिलता है तो वे कोई भीे काम कर सकते हैं।
गौरतलब है कि उनका यह जवाब स्वयंसेविता के इस काम पर कई तरह के सवाल करता है। उन्हें स्वयंसेविता की भावना से कोई लेना देना नहीं होता है। एकमात्र उद्देश्य पैसा होता है। हममें से बहुतेरे जानते हैं कि स्वयंसेविता का दो सौ सालों से पुराना इतिहास रहा है। सामंती व्यवस्था के दौर में भी परोपकारी राजाओं के किस्से यदा कदा सुनाई्र देते थे। भूखे को रोटी, प्यासे को पानी और बीमार की सेवा की हमारी सोच ही आगे चलकर समाजसेवी संगठन के रूप में उभरकर आई्र। और स्वयं सेवी संस्था इस रचनात्मक काम को व्यवस्थित रूप देने के एक जरिए के रूप में विकसित हुआ। धीरे धीरे इस एकदम व्यक्तिगत या सामाजिक व्यवस्था ने ट्रस्ट का रूप ले लिया। इस तरह सेवा और स्वयंसेविता की एक समॄध्द परम्परा हमारे समाज में हर समय मौजूद रही हैे।
आज जिसे हम समाजसेवी या स्वयंसेवी काम कहकर पुकारते हैं उसकी शुरूआत भी सौ दो सौ साल पहले हुई थी। स्वामी दयानंद, विवेकानंद, राजा राममोहन राय, एनीबेसेंट, महात्मा फुले, डॉ. अम्बेडकर, महात्मा गांधी, पेरियार, विनोबा, जयप्रकाश नारायण जैसे अनेक महापुरुषों ने समाज की बुराईयों को दूर करने तथा उसे नई दिशा देने के लिए अनेक संगठन, संस्था अथवा समूह का निर्माण किया। अंग्रेजों के आने से पहले ईसाई मिशनरियों का एक लम्बा इतिहास भी शिक्षा, स्वास्थ्य, और जन सेवा के कामों से भरा पड़ा है, बल्कि कहा जा सकता है कि इन्होंने इस तरह के काम की एक धारा विकसित की है। गांधी विचारधारा ने भी स्वयंसेवी क्षेत्र को विकसित और पोषित करने की दिशा में उल्लेखनीय काम किया है। गांधी स्वतंत्रता संग्राम में दो धाराओं के प्रबल हिमायती थे। एक धारा राजनैतिक तरीके से सत्ता परिवर्तन की थी और दूसरी धारा रचनात्मक तरीके से समाज परिवर्तन की।
समाज परिवर्तन करने वाले स्वयं सेवी क्षेत्र में स्वयंसेवी भावना का विलोपित होना चिन्तनीय है। यदि यह केवल नौकरी करने की जगह या फण्ड की जुगाड़ करने मात्र का क्षेत्र बन जाएगा तो फिर सामाजिक बदलाव की कल्पना करना मुश्किल होगा। सवाल यह नहीं है कि इस क्षेत्र में केवल सेवा भावना ही बनी रहे और काम करने वाले रोजी रोटी को मोहताज हों बल्कि असल में उनकी आवश्यकताओं की पूर्ति के साथ सामाजिक बदलाव का सपना तो कम से कम होना चाहिए। वर्तमान उहापोह के माहौल में कैसे यह भावना पनपेगी यह विचारणीय है। हम सबको मिलकर इस बारे में सोचना होगा।
पिछले तीन चार साल से इस संस्था में सुरेश भाई से मिलने कई नौजवान और प्रौढ़ मिलने के लिए आ रहे हैं। उनकी एक मात्र जिज्ञासा होती है कि स्वयं सेवी संस्था कैसे बनाई जाए। इनकी शब्दावली भी काबिलेगौर है वे कहते हैं कि उन्हें 'एनजीओ डालना हैं!' इन एनजीओ डालने वालों की फेहरिस्त लम्बी हैं। उनमें से एक व्यक्ति तो ऐसे भी हैं जो तीन चार संस्थाएँ पंजीकृत भी करा चुके हैं। हर काम के लिए वे अलग संस्था बनाना चाहते हैं और बना भी रहे हैं। सुरेशभाई बहुत ही उदार व्यक्तित्व वाले हैं। असल में वे व्यवहार से षिक्षक हैं इसलिए बहुत सहज तरीके से संस्था के पंजीयन आदि की वैधानिक जानकारी दे देते हैं। वे यह भी बताते हैं कि प्रोजेक्ट कैसे बनाया जाए, कहाँ भेजा जाए लेकिन यदि वे एनजीओ डालने वालों से पूछे कि उन्हें काम क्या करना है तो लोगों का जवाब होता है कि उन्होंने काम के बारे में अभी नहीं सोचा है परन्तु यदि उन्हें कहीं से फण्ड मिलता है तो वे कोई भीे काम कर सकते हैं।
गौरतलब है कि उनका यह जवाब स्वयंसेविता के इस काम पर कई तरह के सवाल करता है। उन्हें स्वयंसेविता की भावना से कोई लेना देना नहीं होता है। एकमात्र उद्देश्य पैसा होता है। हममें से बहुतेरे जानते हैं कि स्वयंसेविता का दो सौ सालों से पुराना इतिहास रहा है। सामंती व्यवस्था के दौर में भी परोपकारी राजाओं के किस्से यदा कदा सुनाई्र देते थे। भूखे को रोटी, प्यासे को पानी और बीमार की सेवा की हमारी सोच ही आगे चलकर समाजसेवी संगठन के रूप में उभरकर आई्र। और स्वयं सेवी संस्था इस रचनात्मक काम को व्यवस्थित रूप देने के एक जरिए के रूप में विकसित हुआ। धीरे धीरे इस एकदम व्यक्तिगत या सामाजिक व्यवस्था ने ट्रस्ट का रूप ले लिया। इस तरह सेवा और स्वयंसेविता की एक समॄध्द परम्परा हमारे समाज में हर समय मौजूद रही हैे।
आज जिसे हम समाजसेवी या स्वयंसेवी काम कहकर पुकारते हैं उसकी शुरूआत भी सौ दो सौ साल पहले हुई थी। स्वामी दयानंद, विवेकानंद, राजा राममोहन राय, एनीबेसेंट, महात्मा फुले, डॉ. अम्बेडकर, महात्मा गांधी, पेरियार, विनोबा, जयप्रकाश नारायण जैसे अनेक महापुरुषों ने समाज की बुराईयों को दूर करने तथा उसे नई दिशा देने के लिए अनेक संगठन, संस्था अथवा समूह का निर्माण किया। अंग्रेजों के आने से पहले ईसाई मिशनरियों का एक लम्बा इतिहास भी शिक्षा, स्वास्थ्य, और जन सेवा के कामों से भरा पड़ा है, बल्कि कहा जा सकता है कि इन्होंने इस तरह के काम की एक धारा विकसित की है। गांधी विचारधारा ने भी स्वयंसेवी क्षेत्र को विकसित और पोषित करने की दिशा में उल्लेखनीय काम किया है। गांधी स्वतंत्रता संग्राम में दो धाराओं के प्रबल हिमायती थे। एक धारा राजनैतिक तरीके से सत्ता परिवर्तन की थी और दूसरी धारा रचनात्मक तरीके से समाज परिवर्तन की।
समाज परिवर्तन करने वाले स्वयं सेवी क्षेत्र में स्वयंसेवी भावना का विलोपित होना चिन्तनीय है। यदि यह केवल नौकरी करने की जगह या फण्ड की जुगाड़ करने मात्र का क्षेत्र बन जाएगा तो फिर सामाजिक बदलाव की कल्पना करना मुश्किल होगा। सवाल यह नहीं है कि इस क्षेत्र में केवल सेवा भावना ही बनी रहे और काम करने वाले रोजी रोटी को मोहताज हों बल्कि असल में उनकी आवश्यकताओं की पूर्ति के साथ सामाजिक बदलाव का सपना तो कम से कम होना चाहिए। वर्तमान उहापोह के माहौल में कैसे यह भावना पनपेगी यह विचारणीय है। हम सबको मिलकर इस बारे में सोचना होगा।
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