सोमवार, 24 मई 2010

समानता का पक्ष

Monday, February 05, 2007, 2:45:10 पम

आज घर पर एक मित्र आईं हुई थीं। वे एक एनजीओ में काम करती है। वैसे वो पेशे से शिक्षिका है लेकिन कुछ नया करने की चाहत उसे एनजीओ क्षेत्र में काम करने के लिए प्रेरित करती रही थी। वस्तुत: उसने इस क्षेत्र को एक नए दायरे के रूप में काम के लिए चुना। वर्तमान में जिस एनजीओ में वह काम करती है वहाँ उसे आसानी से काम भी मिल गया क्योंकि यह संस्था भी नवाचारी काम और लोगों को जगह देने की पक्षधर है, भलेही वह नवाचार जमीनी हो। करीब दो साल के अनुभवों के बाद मेरी ये मित्र काफी निराश है। जिस त्याग के साथ उसने इस क्षेत्र को चुना था उसका पश्चाताप भी अब उसे होता है। उसकी परेशानी के दो प्रमुख कारण हैं। ये दोनों ही कारण स्वयंसेवी संस्थाओं और अन्य निजी क्षेत्रों में पनप रहे एक अघोषित भेदभाव का खुलासा करते हैं। एक इसमें वेतन का दायरा, और दूसरा काम का मूल्याँकन है।
गौरतलब है कि एक ऊँचे और एक नीचे ओहदे पर काम कर रहे व्यक्ति के बीच में वेतन का अंतर मेरी इस मित्र को हर समय परेशान करते रहता है। उसका मानना है कि जब स्वयंसेवी क्षेत्र समानता की बात करता है तो यह अंतर बहुत ज्यादा नहीं होना चाहिए। इस वेतन के अंतर पर तो वह फिर भी समझौता करने के लिए तैयार हो जाती है लेकिन जब दूसरे मुद्दे पर बात छिड़ती है तो वह काफी आक्रोश से भर जाती है। दूसरा मुद्दा काम के मूल्याँकन का है। यदि वेतन वृध्दि की बात सामने आए तो संस्था के जिम्मेदार पदों पर बैठे लोगों का मानना होता है कि मूल्याँकन करके वेतन बढ़ाया जाना चाहिए। वेतन ही नहीं बल्कि किसी व्यक्ति के काम को आगे बढ़ाने के लिए भी मूल्याँकन को आधार मानने का पक्ष आमतौर पर लिया जाता है। स्वाभाविक है कि जब आप मूल्याँकन की बात कर रहे होते हैं तो समानता की बातें अपरोक्ष रूप से असमानता के रूप में सामने आती हैं। और चूंकि आपकी बातें सबको समान दृष्टि से देखने का पक्ष लेती हैं तो विरोध की कम ही गुंजाइश बचती है। जबकि असलियत इससे फर्क किस्म की होती है और वास्तव में यदि इस समानता के पक्ष का विश्लेषण किया जाए तो यह जाति और वर्ग के आधार पर लोगों को बांटने का यह एक अच्छा हथियार भी हो सकता है। किसी तरह से यदि कोई निचले तबके का व्यक्ति संस्था में काम के लिए भी गया है तो इस मूल्यांकन के बहाने उसे आसानी से बाहर भी किया जा सकता है।
यह एक ऐसा क्षेत्र है जिसमें बाजी निर्णायक ओहदे पर बैठे लोगों के हाथ में ही होती है। एक तो प्रमुख बात यह है कि जब मूल्यांकन करते हैं तो निश्चित ही यह मूल्यांकन उस व्यक्ति के काम का होगा जो संस्था में उसे दिए गए हैं। पर मसला केवल उसके काम का नहीं है। मेरी इस मित्र का मानना है कि आप किसी व्यक्ति के केवल काम का मूल्यांकन कैसे कर सकते हैं जबकि उसके काम को समाज के अन्य फेक्टर भी प्रभावित करते हैं। मसलन उसकी जाति, वर्ग, लिंग और जिससे वह निकलकर आया है या जहां रहता है वह परिवेश आदि। क्या एक दलित, आदिवासी या पिछड़े वर्ग का व्यक्ति समाज के दूसरे लोगों से समान रूप से प्रतियोगिता में ठहर सकता है। शायद नहीं! क्योंकि यदि ऐसा होता तो फिर आरक्षण जैसी चीज़ों की जरूरत ही नहीं होती। व्यक्ति जो भी काम करता है वह केवल उस अकेले पर निर्भर नहीं है उसे आसपास का वातावरण, समाज के अन्य सभी पहलु प्रभावित करते हैं। जब आप तुलनात्मक रूप से किसी उच्च वर्ग के व्यक्ति के साथ उसे खड़ा करेंगे तो हो सकता है कि वह इस मूल्याँकन में असफल हो जाएगा। और ऐसी स्थिति में आप यह कहकर कि आप तो समान व्यवहार करते है बरी हो जाएँगे। इस बात से नहीं नकारा जा सकता है कि काम का मूल्यांकन नहीं होना चाहिए किन्तु असल में काम की जगह देने से लेकर लोगों के प्रशिक्षण और प्रोत्साहन होना भी उतना ही जरूरी होता है। केवल मूल्यांकन से काम नहीं चल सकता।
यह पूरा मुद्दा दिखने में भले ही सरल हो लेकिन वास्तव में इतना सरल नहीं है। कई ऐसी बातें है जो इस मुद्दे पर अपना असर छोड़ती हैं। इसलिए जब आरक्षण की बात सामने आती है तो ऐसे लोग यह कहकर पल्ला झाड़ लेते हैं कि वे तो समानता पर विश्वास करते हैं। यह बात केवल किसी एक संस्था की नहीं है बल्कि यह पूरे समाज के दृश्य को सामने रखती है। तमाम तरह के भाषणों में आरक्षण का पक्ष लेने वाले ये लोग अपनी व्यवहारिक जिन्दगी में जब समानता की बात करते हैं तो इसका सीधा सादा पक्ष सामने आता है कि आप घोर असमानता के पक्षधर हैं। ऐसी स्थिति में कम से कम सरकारी क्षेत्र, जो भलेही कितना भी निकम्मा माना जाता हो, मजबूरी में नौकरी और काम के लिहाज से जाति आधारित समानता अपनाने के लिए प्रतिबध्द होता है। क्या स्वयंसेवी, कार्पोरेट या अन्य निजी क्षेत्र में तथाकथित समानता के पीछे पनप रही इस असमानता को दूर करने के लिए कोई कारगर कदम उठाया जा सकेगा?

ई 7/70 अशोका सोसायटी
अरेरा कॉलोनी, भोपाल 462016 (म.प्र.)

मंगलवार, 18 मई 2010

एनजीओ डालना है!

Friday, March 14, 2008, 11:40:48 पम

मेरे एक वरिष्ठ साथी सुरेश दीवान मध्यप्र्रदेश के होशंगाबाद जिले के आसपास के गाँवों में एक स्वयं सेवी संस्था ग्राम सेवा समिति के साथ काम करते हैं। वे पिछले तीस साल से इस क्षेत्र में काम कर रहे है। गांधी जी के आग्रह पर कई साल के अनौपचारिक काम के बाद वरिष्ठ सर्वोदयी स्व. बनवारीलाल चौधरी ने यह संस्था 1953 में स्थापित की थी। करीब नौ साल तक मैनें भी इस संस्था के साथ काम किया। इस संस्था ने नए लोगों को प्रोत्साहित करने का बहुत उदारता के साथ काम किया है। मेरे जैसे कई लोग है जो अब औपचारिक रूप से संस्था से अलग अलग जगह स्वयं सेवी क्षेत्र में काम कर रहे हैं। संस्था में नए युवक, युवती लगातार आते रहे है। कुछ काम के लिए तो कुछ गांव से जुड़कर कुछ नया सीखने समझने के लिए।
पिछले तीन चार साल से इस संस्था में सुरेश भाई से मिलने कई नौजवान और प्रौढ़ मिलने के लिए आ रहे हैं। उनकी एक मात्र जिज्ञासा होती है कि स्वयं सेवी संस्था कैसे बनाई जाए। इनकी शब्दावली भी काबिलेगौर है वे कहते हैं कि उन्हें 'एनजीओ डालना हैं!' इन एनजीओ डालने वालों की फेहरिस्त लम्बी हैं। उनमें से एक व्यक्ति तो ऐसे भी हैं जो तीन चार संस्थाएँ पंजीकृत भी करा चुके हैं। हर काम के लिए वे अलग संस्था बनाना चाहते हैं और बना भी रहे हैं। सुरेशभाई बहुत ही उदार व्यक्तित्व वाले हैं। असल में वे व्यवहार से षिक्षक हैं इसलिए बहुत सहज तरीके से संस्था के पंजीयन आदि की वैधानिक जानकारी दे देते हैं। वे यह भी बताते हैं कि प्रोजेक्ट कैसे बनाया जाए, कहाँ भेजा जाए लेकिन यदि वे एनजीओ डालने वालों से पूछे कि उन्हें काम क्या करना है तो लोगों का जवाब होता है कि उन्होंने काम के बारे में अभी नहीं सोचा है परन्तु यदि उन्हें कहीं से फण्ड मिलता है तो वे कोई भीे काम कर सकते हैं।
गौरतलब है कि उनका यह जवाब स्वयंसेविता के इस काम पर कई तरह के सवाल करता है। उन्हें स्वयंसेविता की भावना से कोई लेना देना नहीं होता है। एकमात्र उद्देश्य पैसा होता है। हममें से बहुतेरे जानते हैं कि स्वयंसेविता का दो सौ सालों से पुराना इतिहास रहा है। सामंती व्यवस्था के दौर में भी परोपकारी राजाओं के किस्से यदा कदा सुनाई्र देते थे। भूखे को रोटी, प्यासे को पानी और बीमार की सेवा की हमारी सोच ही आगे चलकर समाजसेवी संगठन के रूप में उभरकर आई्र। और स्वयं सेवी संस्था इस रचनात्मक काम को व्यवस्थित रूप देने के एक जरिए के रूप में विकसित हुआ। धीरे धीरे इस एकदम व्यक्तिगत या सामाजिक व्यवस्था ने ट्रस्ट का रूप ले लिया। इस तरह सेवा और स्वयंसेविता की एक समॄध्द परम्परा हमारे समाज में हर समय मौजूद रही हैे।
आज जिसे हम समाजसेवी या स्वयंसेवी काम कहकर पुकारते हैं उसकी शुरूआत भी सौ दो सौ साल पहले हुई थी। स्वामी दयानंद, विवेकानंद, राजा राममोहन राय, एनीबेसेंट, महात्मा फुले, डॉ. अम्बेडकर, महात्मा गांधी, पेरियार, विनोबा, जयप्रकाश नारायण जैसे अनेक महापुरुषों ने समाज की बुराईयों को दूर करने तथा उसे नई दिशा देने के लिए अनेक संगठन, संस्था अथवा समूह का निर्माण किया। अंग्रेजों के आने से पहले ईसाई मिशनरियों का एक लम्बा इतिहास भी शिक्षा, स्वास्थ्य, और जन सेवा के कामों से भरा पड़ा है, बल्कि कहा जा सकता है कि इन्होंने इस तरह के काम की एक धारा विकसित की है। गांधी विचारधारा ने भी स्वयंसेवी क्षेत्र को विकसित और पोषित करने की दिशा में उल्लेखनीय काम किया है। गांधी स्वतंत्रता संग्राम में दो धाराओं के प्रबल हिमायती थे। एक धारा राजनैतिक तरीके से सत्ता परिवर्तन की थी और दूसरी धारा रचनात्मक तरीके से समाज परिवर्तन की।
समाज परिवर्तन करने वाले स्वयं सेवी क्षेत्र में स्वयंसेवी भावना का विलोपित होना चिन्तनीय है। यदि यह केवल नौकरी करने की जगह या फण्ड की जुगाड़ करने मात्र का क्षेत्र बन जाएगा तो फिर सामाजिक बदलाव की कल्पना करना मुश्किल होगा। सवाल यह नहीं है कि इस क्षेत्र में केवल सेवा भावना ही बनी रहे और काम करने वाले रोजी रोटी को मोहताज हों बल्कि असल में उनकी आवश्यकताओं की पूर्ति के साथ सामाजिक बदलाव का सपना तो कम से कम होना चाहिए। वर्तमान उहापोह के माहौल में कैसे यह भावना पनपेगी यह विचारणीय है। हम सबको मिलकर इस बारे में सोचना होगा।

शनिवार, 15 मई 2010

हम कार्यकर्ता हैं

Sunday, July 10, 2005, 11:57:52 PM - डायरी के पन्नों से

आज फिर एक गांव जाना हुआ। मुलाकात हुई एक पुराने साथी से। असल में करीब 50 साल के इन सज्जन से मेरी अक्सर मुलाकात होती है। असल में हमारे मिलने का कारण काम की समानता है। पिछले दस साल से मैं स्वयं सेवी संस्थाओं के साथ काम कर रहा हूं। वे भी एक बहुत ही पुरानी विचारधारा विषेश के साथ काम करने वाली पुरानी संस्था के साथ काम करते हैं। मैंने कभी उनकी पढ़ाई लिखाई के बारे में नहीं पूछा, पर लगता है मिडिल स्कूल स्तर की पढ़ाई की होगी। पिछले 18-20 सालों का अनुभव उन्हें स्वयं सेवी कामों का हो गया है। तमाम तरह की बैठकों, कार्यषालाओं के वे प्रत्यक्षदर्षी रहे हैं। मैं यहां उनके नाम का उल्लेख नहीं कर रहा हूं क्योंकि शायद नाम की जरुरत भी नहीं है। कई सालों के अनुभवों के बाद वे कई बार काम से बहुत निराश हो जाते हैं। और फिर यदि उनसे कोई बात की जाए तो वे गुस्से में जवाब देते हैं। हाल ही उनका ऐसा ही एक जवाब कई तरह के सवाल पैदा करने वाला है। मैनें उनसे पूछा भाई साहब काम कैसा चल रहा है। उनका उत्तर था। बस काम के बारे में ज्यादा मत पूछिए सिर्फ समझ लीजिए कि हम कार्यकर्ता कहलाते हैं, और बाकी लोग जो हमारे जैसा काम करते हैं वे मजदूर, कामदार (बंधुआ मजदूरी की भांति काम करने वाला व्यक्ति) या ऐसे ही कोई नाम से जाने जाते हैं।
उनकी छोटी सी यह टिप्पणी हम कार्यकर्ता कहलाते हैं, स्वयंसेवी क्षेत्र में काम करने वाले सामान्य लोंगो की पीढ़ा को व्यक्त करने वाली है। ये ऐसे कार्यकर्ता हैं जो वेतन या ओहदे में निचले स्तर के हैं। लेकिन इनके काम की फेहरिस्त बहुत लम्बी हैं। हर वह काम जिसके बल पर किसी संस्था का दारोमदार टिका हुआ हैं इन्हीं के हिस्से में आता है। चाहे फिर बात डाटा संग्रह करने की हो, साफ सफाई की हो या संस्था के परिसर से जानवरों के भगाने जैसे छोटे-छोटे कामों की।
देशभर में हजारों की संख्या में स्वयंसेवी संस्थाएं काम कर रही हैं। कई प्रोजेक्ट धारी हैं तो कई किसी प्रोजेक्ट की आशा के साथ काम में लगीं हैं। कुछ अपवाद को छोड़ दें तो इन संस्थाओं में काम करने वाले सामान्य कार्यकर्ताओं की स्थिति बड़ी चिंताजनक हैं। वे कई तरह की असुरक्षाओं से घिरे हैं। न तो उनके रोजगार की कोई गारंटी है और न सुरक्षित भविष्य की कोई उम्मीद। बल्कि इस स्वयं सेवी भावना ने उन्हें बाकी कई दूसरे क्षेत्र में काम करने से तो अलग कर ही दिया है। बस एक सामाजिक बदलाव का एक लुभावना सपना है जो उन्हें काम की ताकत दे रहा है। वे असंगठित क्षेत्र में काम करने वाले मजदूर की तरह ही हैं लेकिन विडंबना है कि वे यह भी नहीं कहला सकते।
स्वयं सेवी क्षेत्र की अपनी एक भाषा और काम के तरीके होते हैं। अमूमन ये कई संस्थाओं में एक जैसे होते हैं। जैसे हर संस्था बल्कि कहिए हर प्रोजेक्ट के लिए कोई विजन, मिशन, लक्ष्य, उद्देष्य, गतिविधियां, निरीक्षण्ा और मूल्यांकन की कल्पना होती है। सबके विस्तार में जाने की फिलहाल जरुरत नहीं है। पर सबसे मुख्य चीज है विजन। यह पूरी संस्था के काम के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण होता है। आमतौर पर विजन ऐसा होता है जिसे प्राप्त करना लोहे के चने चबाना है। जैसे कि समतामूलक समाज की स्थापना। अब भला समता मूलक समाज की स्थापना क्या आसान काम है। ऐसे काम के लिए सैकड़ों सालों का समय चाहिए। लेकिन विजन एक ऐसा फंडा है जो कई तरह की आषाएं जगाता है।
सामान्य कार्यकर्ता के लिए ऐसा आषावादी विजन कम वेतन में काम करने के लिए मजबूर करता है। भलेही उसे इससे कोई मतलब नहीं हो लेकिन अंतत: वह एक स्वयं सेवी कार्यकर्ता है। इसलिए उसे विजन को तो स्वीकार करना ही पड़ेगा। मजबूरी ऐसी हैं कि वह कही काम की तलाश में भी नही जा सकता। असल में कई संस्थाएं तो ऐसी हैं जो कि न्यूनतम मजदूरी अधिनियम के अनुसार भी वेतन नहीं देती है। गौरतलब है कि उन्हें मिलने वाला वेतन दरअसल वेतन भी नहीं कहलाता है वह या तो मानदेय होता है या फिर पारिश्रमिक। पर यह बात सिर्फ सामान्य कार्यकर्ता के स्तर की है। वहीं यदि आप संस्था प्रमुख या प्रमुख जैसे कार्यकर्ताओं की बात करें तो यह बात शायद लागू नहीं होगी। सामान्य कार्यकर्ता के साथ उनकी समानता इतनी भर है कि उनका वेतन भी मानदेय है और वे भी कार्यकर्ता ही कहलाते या कहलाना पसंद करते हैं, लेकिन केवल समाज के सामने ही। सामान्य कार्यकर्ताओं के लिए तो वे कुछ और ही हैं। पिछले कुछ सालों से स्वयंसेवी क्षेत्र में प्रोफेसनल्स भी बड़ी संख्या में आ रहे हैं। उन्हें स्वयं सेवी कार्यकर्ता के रूप में किस हद तक स्वीकार किया जा सकता है यह एक अलग सवाल है।
कुल मिलाकर स्वयंसेवी क्षेत्र में इस तरह की विसंगति चिंता का मुद्दा है। क्योंकि यह एक ऐसा क्षेत्र है जिससे वास्तव में किसी बदलाव की आषा की जा सकती है। लगभग समाज के हर पहलुओं को संस्थाओं ने छूने की कोशिश भी की है। तमाम तरह की सरकारी या गैर सरकारी सामाजिक हित की योजनाओं में स्वयंसेवी संस्थाओं की महत्वपूर्ण भूमिका हर तरफ से देखी जा रही है। संस्थाओं और स्वयंसेवी कार्यकर्ताओं को मिलकर कुछ हल तलाशने की कोशिश करने की महती जरुरत इन दिनों महसूस हो रही है। अन्यथा सामाजिक बदलाव का यह सपना केवल सपना ही रह जाएगा!
नर्मदा कॉलोनी, ग्वालटोली,

शुक्रवार, 14 मई 2010

होमवर्क

Wednesday, September 13, 2006, 12:25:42 AM
मेरी चार साल की बेटी रितिका ने स्कूल जाना बन्द कर दिया है। करीब दो महिने वो मोहल्ले के ही एक स्कूल में पढ़ने गई। अब वह घर में ही अपनी मां से रोजाना पढ़ती है। और जहां तक मेरा कयास है, उसे लगभग उसकी उम्रानुसार जानकारी है। वह ढेर सारी किताबी बातों को अब समझने लगी है। मुद्दा रितिका के स्कूल जाने या नहीं जाने का नहीं है। जब उसे स्कूल का अर्थ समझ में आएगा तब वह स्कूल जाने लगेगी। लेकिन उसके स्कूल छोड़ने का कारण विचारणीय है।
असल में रितिका होमवर्क नहीं करना चाहती है। और उसकी टीचर का दबाव है कि वह अपना होमवर्क करे। इस बात की शिकायत उक्त शिक्षिका मुझसे भी कर चुकी हैं। मैंने रितिका से एक दिन कहा कि उसे अपनी टीचर की बात मानते हुए अपना होमवर्क करके स्कूल जाना चाहिए। उसने खुश होकर मेरा कहा माना। दूसरे दिन जब टीचर ने उसे अंग्रेजी की वर्णमाला लिखकर लाने को कहा तो उसने अपनी सारी कापी में कुछ चित्र बना ले गई। फिर क्या था इतना बड़ा जुर्म टीचर कैसे स्वीकार कर सकती थी। उसने रितिका को डांटने के बाद मुझसे फिर से शिकायत की कि रितिका ने उसके द्वारा दिए होमवर्क के स्थान पर चित्र बना दिए है। मैनें उसके चित्र देखे काफी अच्छे थे उसमें से एक-दो बच्चों की पत्रिका उड़ान और चकमक में भी छपे। लेकिन रितिका को होमवर्क का तरीका रास नहीं आया और उसने तय किया कि वह स्कूल नहीं जाएगी। अब वह दिनभर चित्र बनाती रहती है। और मानती है कि वह होमवर्क कर रही है।
यह हाल होशंगाबाद के केवल मेरे मोहल्ले के इस स्कूल का ही नहीं है। बल्कि अमूमन हर स्कूल में होमवर्क एक बहुत ही महत्वपूर्ण चीज है। तीन साल के बच्चे के बालमन को होमवर्क के बोझ में डालकर जाने कौन सी प्रगतिषील पीढ़ी स्कूलों के जरिए तैयार की जा रही है। शिक्षकों से यदि बात करो तो कहते है कि हम होमवर्क नहीं दें तो फिर पालक नाराज होते हैं। दरअसल हर व्यक्ति मानता है कि होमवर्क ही असली पढ़ाई है। इन दिनों पूरे देश में शिक्षा व्यवस्था को लेकर तमाम तरह के सवाल उठाए जा रहे हैं। कहा जा रहा है कि बस्ते का बोझ कम किया जाना चाहिए। बच्चों पर अनावष्यक दबाव भी कम करने के बारे में सिफारिषें की जा रही हैं। लेकिन उसके बरख्त आज भी तथाकथित कस्बाई और शायद शहरी संस्कृति होमवर्क की संस्कृति बनते जा रही है। अब तो गाँव में भी यह संस्कृति अपनी जगह बनाने लगी है।
हिन्दी के कवि और शिक्षा में पिछले कई सालों से काम कर रहे श्री श्यामबहादुर नम्र की एक कविता होमवर्क मध्यप्रदेश में खूब चर्चा में रहती है। इस कविता के कई संस्थाओं ने तो पोस्टर भी छापे हैं। यह कविता स्कूल जाने वाली दो लड़कियों के रोजमर्या के घटनाक्रम के बहाने होमवर्क ही नहीं पूरी शिक्षा व्यवस्था पर सवाल उठाती है। कविता कहती है कि एक बच्ची स्कूल जाती है। बकरी चराती है और लकड़ियाँ बटोरकर लाती है। फिर मां के साथ खाना पकाती है। एक बच्ची किताब लादे स्कूल जाती है शाम को थकी मांदी घर आती है। वह स्कूल से मिला होमवर्क मां-बाप से करवाती है। लेकिन लकड़ी से चूल्हा जलेगा यह लकड़ी लाने वाली लड़की यह जानती है लेकिन किताबी ज्ञान कब काम आएगा इसे जाने वगैर, स्कूल जाने वाली बच्ची बिना समझे पढ़ जाती है। होमवर्क और ग्रहकार्य के इस भेदभाव और शिक्षा को व्यवहारिक बनाने की बात नम्र जी ने इस कविता में कही है। कभी आपको कविता मिले तो ज़रूर पढ़ना। हाँ मैं भी आपको उक्त कविता उपलब्ध करा सकता हूँ।
गौरतलब है कि सम्पूर्ण शिक्षा व्यवस्था इस कविता से उलटे ही चल रही है। रटंत पध्दति से पढ़ाई की यह प्रक्रिया बच्चों के सामने जिन्दगी की कोई तस्वीर पेश नहीं करती है और अंतत: पढ़ाई की औपचारिकता पूरी होने के बाद बेरोजगारों की जमात में नौजवानों को खड़ा होना पड़ता है। मध्यप्रदेश में तो शिक्षा में काम कर रही एकलव्य और भारत विज्ञान समिति जैसी संस्थाएँ लगातार शिक्षा में आमूल चूल बदलाव की कोशिश में लगीं हैं। ''मैने सुना भूल गया, मैनें देखा याद रहा और मैनें करके देखा समझ गया'' के सिध्दान्त पर एकलव्य का विज्ञान शिक्षण कार्यक्रम मध्यप्रदेश के एक हजार स्कूलों में तीस साल तक चला। और अंतत: तथाकथित राजनीति ने अपनी ताकत दिखाते हुए एक झटके में इस कार्यक्रम का सफाया कर दिया। क्योंकि शायद इस पध्दति में किताबी होमवर्क नहीं था। यह किताब आसपास के परिवेश से जोड़ने की बात करती थी। जो शायद किसी को भी स्वीकार्य नहीं था। कब हम होमवर्क की संस्कृति से उपर उठकर शिक्षा के व्यवहारिक पक्ष को समझ पाएंगें यह सवाल अनुत्तरित ही है!
नर्मदा कॉलोनी, ग्वालटोली होशंगाबाद

शनिवार, 8 मई 2010

अपनी बात

बहुत दिनों से सोच रहा था कि एक ऐसा ब्‍लॉग बनाऊँ जिसमें जो भी जी करे लिखा जा सके। लेकिन उसके नाम को सोचने में अरसा गुजर गया। बहुत से नाम सर्च किए पर अनुपलब्‍धता की सूचना हर बार मिलते रही। फिर सोचा कि नाम में क्‍या रखा है। तो बलॉग का यूआरएल अपने ही नाम से रखते हुए अपनी बात नाम से एक ब्‍लॉग बना डाला। मेरा खेत खलियान ब्‍लॉग कभी आपने पढ़ा होगा तो आपसे परिचय पुराना है।

शिवनारायण