सोमवार, 8 अगस्त 2011

तेरा घर

· शिवनारायण गौर

वैसे ही खुलती हैं

वे खिड़कियॉं।

दरवाज़े भी खुलते हैं

वैसे ही।

घर से आती

रोशनी कहती है,

कोई इस घर में

रहती है।

लेकिन जब

ढूँढता हूँ

तुझको,

तो सूना ही है

यह घर,

तू नहीं रहती

अब इस घर में।

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