Sunday, July 10, 2005, 11:57:52 PM - डायरी के पन्नों से
आज फिर एक गांव जाना हुआ। मुलाकात हुई एक पुराने साथी से। असल में करीब 50 साल के इन सज्जन से मेरी अक्सर मुलाकात होती है। असल में हमारे मिलने का कारण काम की समानता है। पिछले दस साल से मैं स्वयं सेवी संस्थाओं के साथ काम कर रहा हूं। वे भी एक बहुत ही पुरानी विचारधारा विषेश के साथ काम करने वाली पुरानी संस्था के साथ काम करते हैं। मैंने कभी उनकी पढ़ाई लिखाई के बारे में नहीं पूछा, पर लगता है मिडिल स्कूल स्तर की पढ़ाई की होगी। पिछले 18-20 सालों का अनुभव उन्हें स्वयं सेवी कामों का हो गया है। तमाम तरह की बैठकों, कार्यषालाओं के वे प्रत्यक्षदर्षी रहे हैं। मैं यहां उनके नाम का उल्लेख नहीं कर रहा हूं क्योंकि शायद नाम की जरुरत भी नहीं है। कई सालों के अनुभवों के बाद वे कई बार काम से बहुत निराश हो जाते हैं। और फिर यदि उनसे कोई बात की जाए तो वे गुस्से में जवाब देते हैं। हाल ही उनका ऐसा ही एक जवाब कई तरह के सवाल पैदा करने वाला है। मैनें उनसे पूछा भाई साहब काम कैसा चल रहा है। उनका उत्तर था। बस काम के बारे में ज्यादा मत पूछिए सिर्फ समझ लीजिए कि हम कार्यकर्ता कहलाते हैं, और बाकी लोग जो हमारे जैसा काम करते हैं वे मजदूर, कामदार (बंधुआ मजदूरी की भांति काम करने वाला व्यक्ति) या ऐसे ही कोई नाम से जाने जाते हैं।
उनकी छोटी सी यह टिप्पणी हम कार्यकर्ता कहलाते हैं, स्वयंसेवी क्षेत्र में काम करने वाले सामान्य लोंगो की पीढ़ा को व्यक्त करने वाली है। ये ऐसे कार्यकर्ता हैं जो वेतन या ओहदे में निचले स्तर के हैं। लेकिन इनके काम की फेहरिस्त बहुत लम्बी हैं। हर वह काम जिसके बल पर किसी संस्था का दारोमदार टिका हुआ हैं इन्हीं के हिस्से में आता है। चाहे फिर बात डाटा संग्रह करने की हो, साफ सफाई की हो या संस्था के परिसर से जानवरों के भगाने जैसे छोटे-छोटे कामों की।
देशभर में हजारों की संख्या में स्वयंसेवी संस्थाएं काम कर रही हैं। कई प्रोजेक्ट धारी हैं तो कई किसी प्रोजेक्ट की आशा के साथ काम में लगीं हैं। कुछ अपवाद को छोड़ दें तो इन संस्थाओं में काम करने वाले सामान्य कार्यकर्ताओं की स्थिति बड़ी चिंताजनक हैं। वे कई तरह की असुरक्षाओं से घिरे हैं। न तो उनके रोजगार की कोई गारंटी है और न सुरक्षित भविष्य की कोई उम्मीद। बल्कि इस स्वयं सेवी भावना ने उन्हें बाकी कई दूसरे क्षेत्र में काम करने से तो अलग कर ही दिया है। बस एक सामाजिक बदलाव का एक लुभावना सपना है जो उन्हें काम की ताकत दे रहा है। वे असंगठित क्षेत्र में काम करने वाले मजदूर की तरह ही हैं लेकिन विडंबना है कि वे यह भी नहीं कहला सकते।
स्वयं सेवी क्षेत्र की अपनी एक भाषा और काम के तरीके होते हैं। अमूमन ये कई संस्थाओं में एक जैसे होते हैं। जैसे हर संस्था बल्कि कहिए हर प्रोजेक्ट के लिए कोई विजन, मिशन, लक्ष्य, उद्देष्य, गतिविधियां, निरीक्षण्ा और मूल्यांकन की कल्पना होती है। सबके विस्तार में जाने की फिलहाल जरुरत नहीं है। पर सबसे मुख्य चीज है विजन। यह पूरी संस्था के काम के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण होता है। आमतौर पर विजन ऐसा होता है जिसे प्राप्त करना लोहे के चने चबाना है। जैसे कि समतामूलक समाज की स्थापना। अब भला समता मूलक समाज की स्थापना क्या आसान काम है। ऐसे काम के लिए सैकड़ों सालों का समय चाहिए। लेकिन विजन एक ऐसा फंडा है जो कई तरह की आषाएं जगाता है।
सामान्य कार्यकर्ता के लिए ऐसा आषावादी विजन कम वेतन में काम करने के लिए मजबूर करता है। भलेही उसे इससे कोई मतलब नहीं हो लेकिन अंतत: वह एक स्वयं सेवी कार्यकर्ता है। इसलिए उसे विजन को तो स्वीकार करना ही पड़ेगा। मजबूरी ऐसी हैं कि वह कही काम की तलाश में भी नही जा सकता। असल में कई संस्थाएं तो ऐसी हैं जो कि न्यूनतम मजदूरी अधिनियम के अनुसार भी वेतन नहीं देती है। गौरतलब है कि उन्हें मिलने वाला वेतन दरअसल वेतन भी नहीं कहलाता है वह या तो मानदेय होता है या फिर पारिश्रमिक। पर यह बात सिर्फ सामान्य कार्यकर्ता के स्तर की है। वहीं यदि आप संस्था प्रमुख या प्रमुख जैसे कार्यकर्ताओं की बात करें तो यह बात शायद लागू नहीं होगी। सामान्य कार्यकर्ता के साथ उनकी समानता इतनी भर है कि उनका वेतन भी मानदेय है और वे भी कार्यकर्ता ही कहलाते या कहलाना पसंद करते हैं, लेकिन केवल समाज के सामने ही। सामान्य कार्यकर्ताओं के लिए तो वे कुछ और ही हैं। पिछले कुछ सालों से स्वयंसेवी क्षेत्र में प्रोफेसनल्स भी बड़ी संख्या में आ रहे हैं। उन्हें स्वयं सेवी कार्यकर्ता के रूप में किस हद तक स्वीकार किया जा सकता है यह एक अलग सवाल है।
कुल मिलाकर स्वयंसेवी क्षेत्र में इस तरह की विसंगति चिंता का मुद्दा है। क्योंकि यह एक ऐसा क्षेत्र है जिससे वास्तव में किसी बदलाव की आषा की जा सकती है। लगभग समाज के हर पहलुओं को संस्थाओं ने छूने की कोशिश भी की है। तमाम तरह की सरकारी या गैर सरकारी सामाजिक हित की योजनाओं में स्वयंसेवी संस्थाओं की महत्वपूर्ण भूमिका हर तरफ से देखी जा रही है। संस्थाओं और स्वयंसेवी कार्यकर्ताओं को मिलकर कुछ हल तलाशने की कोशिश करने की महती जरुरत इन दिनों महसूस हो रही है। अन्यथा सामाजिक बदलाव का यह सपना केवल सपना ही रह जाएगा!
नर्मदा कॉलोनी, ग्वालटोली,
उनकी छोटी सी यह टिप्पणी हम कार्यकर्ता कहलाते हैं, स्वयंसेवी क्षेत्र में काम करने वाले सामान्य लोंगो की पीढ़ा को व्यक्त करने वाली है। ये ऐसे कार्यकर्ता हैं जो वेतन या ओहदे में निचले स्तर के हैं। लेकिन इनके काम की फेहरिस्त बहुत लम्बी हैं। हर वह काम जिसके बल पर किसी संस्था का दारोमदार टिका हुआ हैं इन्हीं के हिस्से में आता है। चाहे फिर बात डाटा संग्रह करने की हो, साफ सफाई की हो या संस्था के परिसर से जानवरों के भगाने जैसे छोटे-छोटे कामों की।
देशभर में हजारों की संख्या में स्वयंसेवी संस्थाएं काम कर रही हैं। कई प्रोजेक्ट धारी हैं तो कई किसी प्रोजेक्ट की आशा के साथ काम में लगीं हैं। कुछ अपवाद को छोड़ दें तो इन संस्थाओं में काम करने वाले सामान्य कार्यकर्ताओं की स्थिति बड़ी चिंताजनक हैं। वे कई तरह की असुरक्षाओं से घिरे हैं। न तो उनके रोजगार की कोई गारंटी है और न सुरक्षित भविष्य की कोई उम्मीद। बल्कि इस स्वयं सेवी भावना ने उन्हें बाकी कई दूसरे क्षेत्र में काम करने से तो अलग कर ही दिया है। बस एक सामाजिक बदलाव का एक लुभावना सपना है जो उन्हें काम की ताकत दे रहा है। वे असंगठित क्षेत्र में काम करने वाले मजदूर की तरह ही हैं लेकिन विडंबना है कि वे यह भी नहीं कहला सकते।
स्वयं सेवी क्षेत्र की अपनी एक भाषा और काम के तरीके होते हैं। अमूमन ये कई संस्थाओं में एक जैसे होते हैं। जैसे हर संस्था बल्कि कहिए हर प्रोजेक्ट के लिए कोई विजन, मिशन, लक्ष्य, उद्देष्य, गतिविधियां, निरीक्षण्ा और मूल्यांकन की कल्पना होती है। सबके विस्तार में जाने की फिलहाल जरुरत नहीं है। पर सबसे मुख्य चीज है विजन। यह पूरी संस्था के काम के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण होता है। आमतौर पर विजन ऐसा होता है जिसे प्राप्त करना लोहे के चने चबाना है। जैसे कि समतामूलक समाज की स्थापना। अब भला समता मूलक समाज की स्थापना क्या आसान काम है। ऐसे काम के लिए सैकड़ों सालों का समय चाहिए। लेकिन विजन एक ऐसा फंडा है जो कई तरह की आषाएं जगाता है।
सामान्य कार्यकर्ता के लिए ऐसा आषावादी विजन कम वेतन में काम करने के लिए मजबूर करता है। भलेही उसे इससे कोई मतलब नहीं हो लेकिन अंतत: वह एक स्वयं सेवी कार्यकर्ता है। इसलिए उसे विजन को तो स्वीकार करना ही पड़ेगा। मजबूरी ऐसी हैं कि वह कही काम की तलाश में भी नही जा सकता। असल में कई संस्थाएं तो ऐसी हैं जो कि न्यूनतम मजदूरी अधिनियम के अनुसार भी वेतन नहीं देती है। गौरतलब है कि उन्हें मिलने वाला वेतन दरअसल वेतन भी नहीं कहलाता है वह या तो मानदेय होता है या फिर पारिश्रमिक। पर यह बात सिर्फ सामान्य कार्यकर्ता के स्तर की है। वहीं यदि आप संस्था प्रमुख या प्रमुख जैसे कार्यकर्ताओं की बात करें तो यह बात शायद लागू नहीं होगी। सामान्य कार्यकर्ता के साथ उनकी समानता इतनी भर है कि उनका वेतन भी मानदेय है और वे भी कार्यकर्ता ही कहलाते या कहलाना पसंद करते हैं, लेकिन केवल समाज के सामने ही। सामान्य कार्यकर्ताओं के लिए तो वे कुछ और ही हैं। पिछले कुछ सालों से स्वयंसेवी क्षेत्र में प्रोफेसनल्स भी बड़ी संख्या में आ रहे हैं। उन्हें स्वयं सेवी कार्यकर्ता के रूप में किस हद तक स्वीकार किया जा सकता है यह एक अलग सवाल है।
कुल मिलाकर स्वयंसेवी क्षेत्र में इस तरह की विसंगति चिंता का मुद्दा है। क्योंकि यह एक ऐसा क्षेत्र है जिससे वास्तव में किसी बदलाव की आषा की जा सकती है। लगभग समाज के हर पहलुओं को संस्थाओं ने छूने की कोशिश भी की है। तमाम तरह की सरकारी या गैर सरकारी सामाजिक हित की योजनाओं में स्वयंसेवी संस्थाओं की महत्वपूर्ण भूमिका हर तरफ से देखी जा रही है। संस्थाओं और स्वयंसेवी कार्यकर्ताओं को मिलकर कुछ हल तलाशने की कोशिश करने की महती जरुरत इन दिनों महसूस हो रही है। अन्यथा सामाजिक बदलाव का यह सपना केवल सपना ही रह जाएगा!
नर्मदा कॉलोनी, ग्वालटोली,
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